Holi Celebration: राजस्थान में यहां रंग-गुलाल से नहीं बल्कि बारूद से मनाई जाती है होली, जानें खास परंपरा
इस उत्सव की जड़ें महाराणा अमर सिंह प्रथम के समय की एक ऐतिहासिक घटना से जुड़ी हैं। कहते हैं कि साल 1576 के हल्दी घाटी युद्ध के बाद मेवाड़ में मुगलों के खिलाफ विद्रोह की लहर उठी। मेनार गांव में मुगलों की एक चौकी स्थापित थी, जिसका सूबेदार अत्यंत क्रूर था और ग्रामीणों को प्रताड़ित करता था। महाराणा प्रताप के निधन के बाद मेनारिया ब्राह्मणों ने संगठित होकर इस चौकी को खत्म करने की योजना बनाई। विक्रम संवत 1657 (सन् 1600) में होली के दूसरे दिन, यानी जमराबीज पर वीर मेनारिया ब्राह्मणों ने मुगलों पर हमला कर पूरी सेना का सफाया कर दिया। इस वीरता से प्रभावित होकर महाराणा अमर सिंह ने मेनारिया समाज को लाल जाजम, रणबांकुरा ढोल, सिर पर कलंकी धारण करने की मान्यता और मेवाड़ की 17वीं उमराव की उपाधि प्रदान की। तभी से इस दिन को शौर्य और विजय के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है।

उदयपुर । राजस्थान के एक छोटे से गांव में एक अनोखी परंपरा है, जो आपको हैरान कर देगी। इस गांव में होली के त्योहार को बहुत ही अनोखे और रोमांचक तरीके से मनाया जाता है। यहां के लोग होली के दिन बारूद से खेलते हैं।
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बारूद की होली खेली जाती है
राजस्थान में उदयपुर जिले के मेनार गांव में ऐतिहासिक शौर्य पर्व ‘जमराबीज’ इस बार भी धूमधाम से मनाया जाएगा। 450 साल से चली आ रही इस परंपरा में होली के दूसरे दिन जमराबीज पर यहां बारूद की होली खेली जाती है, जिसे देखने दूरदराज से लोग मेनार गांव पहुंचते हैं। बता दें कि इस बार 15 मार्च को भव्य रूप से यह पर्व मनाया जाएगा, जिसकी तैयारियों में ग्रामीण जुटे हैं। इस अनोखे पर्व की खासियत बारूद की होली, तलवारों की गेर और विशाल आतिशबाजी है। पूरे गांव को रंगीन रोशनियों से सजाया जा रहा है। वहीं, ग्रामीण तोप, तलवार और बंदूकों की साफ-सफाई और मरम्मत में जुटे हुए हैं।
इतिहास से जुड़ा वीरता का पर्व
इस उत्सव की जड़ें महाराणा अमर सिंह प्रथम के समय की एक ऐतिहासिक घटना से जुड़ी हैं। कहते हैं कि साल 1576 के हल्दी घाटी युद्ध के बाद मेवाड़ में मुगलों के खिलाफ विद्रोह की लहर उठी। मेनार गांव में मुगलों की एक चौकी स्थापित थी, जिसका सूबेदार अत्यंत क्रूर था और ग्रामीणों को प्रताड़ित करता था। महाराणा प्रताप के निधन के बाद मेनारिया ब्राह्मणों ने संगठित होकर इस चौकी को खत्म करने की योजना बनाई। विक्रम संवत 1657 (सन् 1600) में होली के दूसरे दिन, यानी जमराबीज पर वीर मेनारिया ब्राह्मणों ने मुगलों पर हमला कर पूरी सेना का सफाया कर दिया। इस वीरता से प्रभावित होकर महाराणा अमर सिंह ने मेनारिया समाज को लाल जाजम, रणबांकुरा ढोल, सिर पर कलंकी धारण करने की मान्यता और मेवाड़ की 17वीं उमराव की उपाधि प्रदान की। तभी से इस दिन को शौर्य और विजय के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है।
तलवारों की अनोखी गेर
होली पर पूरे राजस्थान में गेर नृत्य किया जाता है, लेकिन मेनार की गेर विशेष रूप से तलवारों से खेली जाती है। गांव के ओंकारेश्वर चौक में पारंपरिक परिधान में सजे युवक तोपों की गर्जना, बंदूकों से बारूद की बौछार और भव्य आतिशबाजी के बीच एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में लाठी लिए युद्ध कौशल का प्रदर्शन करते हैं। इस दौरान पूरे गांव का माहौल युद्ध के दृश्य जैसा होता है।
परंपरा और उल्लास का संगम
जमराबीज की रात इतिहास वाचन के बाद देर रात तक गेर नृत्य, तलवारबाजी और आग का गोला घुमाने का प्रदर्शन किया जाता है। दिनभर रणबांकुरा ढोल बजता रहता है और अमल कसुबा रस्म अदा की जाती है। मेनारिया समाज के हजारों प्रवासी इस अवसर पर गांव लौटते हैं और अतिथि सत्कार एवं सुरक्षा का जिम्मा स्वयं संभालते हैं। 450 वर्षों बाद भी यह परंपरा उसी जोश और उत्साह के साथ जीवंत है। मेनार की बारूद की होली और शौर्य पर्व जमराबीज इसे राजस्थान के अन्य उत्सवों से अलग पहचान दिलाते हैं।
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Mahendra Mangal