कई नदियों के उद्गम की खोज करने वाले प्रथम भारतीय सर्वेक्षक पंडित नैनसिंह रावत का जन्म दिन आज

पंडित नैनसिंह ने अपनी पांच प्रमुख यात्राओं में हर जगह की भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक स्थिति, भाषा-बोली, खेती, रीति-रिवाज आदि का अध्ययन किया और दुर्गम पुराने व्यापार मार्गों के मानचित्र बनाये। उन्होंने कई नदियों के उद्गम की खोज की। उनकी पुस्तक ‘अक्षांश दर्पण’ ('Latitude Mirror') का वर्तमान सर्वेक्षक भी उपयोग करते हैं। उन्होंने नये सर्वेक्षकों को प्रशिक्षित भी किया।

जयपुर। पर्वतीय क्षेत्र में सर्वेक्षण का काम बहुत कठिन है। आज तो इसके लिए अनेक सुविधाएं तथा वैज्ञानिक उपकरण उपलब्ध हैं; पर जब यह नहीं थे, तब सर्वेक्षण करना बहुत साहस एवं सूझबूझ का काम था। पंडित नैनसिंह रावत ऐसे ही एक व्यक्तित्व थे। अतः उनके काम को विश्व भर में मान्यता मिली।


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21 अक्तूबर, 1830 को हुआ जन्म

पंडित नैनसिंह (Pandit Nainsingh) का जन्म 21 अक्तूबर, 1830 को ग्राम मिलम (मुनस्यारी, उत्तराखंड) में श्री अमर सिंह के घर में हुआ था। उनके दादा श्री धामसिंह को कुमाऊं के राजा दीपचंद्र (Raja Deepchandra of Kumaon) ने 1735 में कई गांवों की जागीर दी थी। घर चलाने के लिए वे अध्यापक बने, इसीलिए उनके नाम के साथ पंडित जुड़ गया।


इस प्रतिभा का ब्रिटिश शासन ने किया पूरा उपयोग
पंडित नैनसिंह भोटिया जनजाति में जन्मे थे। उन्होंने एक डायरी में अपने मिलपवाल गोत्र की उत्पत्ति धारानगर के क्षेत्री पंवार वंशियों से बताई है। अपने पिता के साथ व्यापार के लिए वे कई बार तिब्बत और लद्दाख की लम्बी यात्राओं (Long trips to Tibet and Ladakh) पर गये। इससे यात्रा और अन्वेषण उनकी रुचि का विषय बन गया। उनकी इस प्रतिभा तथा साहसी स्वभाव का ब्रिटिश शासन ने पूरा उपयोग किया।


उनकी गणनाएं आज भी सटीक
कर्नल मांटगुमरी से सर्वेक्षण के नये उपकरणों का प्रशिक्षण लेकर उन्होंने 1865-66 में पहली यात्रा ल्हासा (तिब्बत) की ओर की। वे अल्मोड़ा से काठमांडू और वहां से तिब्बत पहुंचकर ब्रह्मपुत्र नदी के साथ-साथ चलते गये। ऊंचाई की गणना (height calculation) वे पानी उबलने में लगे समय तथा तापमान से करते थे। तारों तथा नक्षत्रों से वे भोगौलिक स्थिति(geographical location) तथा कदमों से दूरी नापते थे। यह आश्चर्य की बात है कि उनकी गणनाएं आज भी लगभग ठीक सिद्ध होती हैं। उन्होंने इस यात्रा की कठिनाइयों की चर्चा करते हुए लिखा है कि वहां के शासक अंग्रेजों या उनके कर्मचारियों तथा धरती की नाप के उपकरण देखकर भड़क जाते थे। अतः वे कभी व्यापारी तो कभी बौद्ध लामा की तरह ‘ॐ मणि पद्मे हुम्’ का जाप करते हुए वेश बदल-बदल कर यात्रा करते थे।


खान से सोना निकालने की विधि लिखी
1867 में वे फिर तिब्बत गये। इस यात्रा में कई बार वे भटक गये और खाना तो दूर पानी तक नहीं मिला। यहां खान से सोना निकालने की विधि उन्होंने लिखी है। उनकी कई डायरियां अप्राप्य हैं। उनकी तीसरी यात्रा 1873-74 में यारकन्द खोतान की हुई। उन्होंने लिखा है कि वहां के बूढ़े मुसलमान 8-10 साल की कन्या से भी निकाह कर लेते हैं। कई बालिकाएं इससे मर जाती हैं। वहां पुरुष कई निकाह करते हैं और इसे प्रतिष्ठा की बात माना जाता है।


कई नदियों के उद्गम की खोज
पंडित नैनसिंह ने अपनी पांच प्रमुख यात्राओं में हर जगह की भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक स्थिति, भाषा-बोली, खेती, रीति-रिवाज आदि का अध्ययन किया और दुर्गम पुराने व्यापार मार्गों के मानचित्र बनाये। उन्होंने कई नदियों के उद्गम की खोज की। उनकी पुस्तक ‘अक्षांश दर्पण’ (‘Latitude Mirror’) का वर्तमान सर्वेक्षक भी उपयोग करते हैं। उन्होंने नये सर्वेक्षकों को प्रशिक्षित भी किया।


पुस्तक ‘अक्षांश दर्पण’ आज भी उपयोगी
1876 में उनका काम ‘रायल मैगजीन’ में प्रकाशित हुआ। 1877 में पेरिस के भूगोलशास्त्रियों ने उन्हें सोने की घड़ी देकर सम्मानित किया। ‘रायल ज्योग्राफिकल सोसायटी, लंदन’ ने 18 मई, 1877 को उन्हें स्वर्ण पदक देकर मध्य एशिया के क्यून ल्यून पहाड़ की एक अनाम शृंखला को ‘नैनसिंह रेंज’ नाम दिया। 1961 तक की ‘रीडर्स डाइजेस्ट एटलस’ में यह नाम मिलता है; पर फिर न जाने क्यों इसे बदलकर ‘नांगलौंग कांगरी’ कर दिया गया।


ब्रिटिश शासन ने एक गांव पुरस्कार में दिया
1877 में अवकाश प्राप्ति पर ब्रिटिश शासन ने उन्हें एक हजार रु0 तथा रुहेलखंड के तराई क्षेत्र में एक गांव पुरस्कार में दिया। 1895 में वहां पर ही घूमते समय हुए हृदयाघात से उनका देहांत हुआ। 27 जून, 2004 को भारत सरकार ने उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया है।


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